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{{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=विनीत मोहन औदिच्य|संग्रह= }}{{KKCatGhazal}}<poem>'''4'''
समझे न ये ज़मानः कभी बेअसर मुझे
जीवन के हर सवाल से लगता है डर मुझे
बेचैन रूह पा न सकी 'फिक्र' कुछ सुकूं
कैसे अता करेगा खुदा पाक घर मुझे
'''5'''
जिंदगी की कशमकश से जूझता रहता हूँ मैं।।
हार जाता हूँ कभी औ जीतता रहता हूँ मैं।।
'फ़िक्र' दुन्या से शिकायत भी करूँ तो क्या करूँ
उस खुदा की हर रजा को मानता रहता हूँ मैं।।
'''6'''
जाने ये कैसा जमाने का असर लगता है
आज इंसान को इंसान से डर लगता है।