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<poem>
'''1'''
प्रणाम तुझे , ओ दिवस की अन्तिम किरण,
ओ साँझ की सन्तान, विदाई का यह अन्तिम प्रणाम !
प्रकाश की तरह निर्मल, दिव्य पक्षी की तरह भारहीन,
'''2'''
ओ, याद करना जब धोखा दें तुम्हें
सपनों और पँखधारी प्रेतात्माओं में रखा विश्वास,
बिना इच्छा के उदासी में दबे होंठों पर
कुण्डली मारकर बैठी दुष्टता का अट्टाहास ।
ओ, भले ही, तुम्हारा मन याद करने लगे तब उसेजिसकी वाणी भरी थी हंगामे और व्याभिचार के शब्दों से,गूँजती थी जो तुम्हारे लिए, भले ही, बड़े भाई की तरहखड़ा होता जो तुम्हारे सामने निर्दोष सिद्ध होकर आरोपों से । ओ, याद करना ... उसे विश्वास है, निर्दोष सिद्ध हो जाएगा वह,उसे प्राप्त है वरदान तुम्हारे भविष्य को जानने का,ज्ञान है उसे पीड़ा की तुम्हारी समझ का । कि उसकी तरह तुम भी घृणा करने लगोगी,भले ही इष्वर ने रचा है तुम्हें प्यार करने के लिए,दुख के क्षणों में देवदूत को याद करने लगोगी ।  1 दिसम्बर 1845
'''मूल रूसी भाषा से अनुवाद : वरयाम सिंह'''
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