भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अलग होना / बरीस पास्तेरनाक

16 bytes added, 10:03, 18 जुलाई 2022
चौखट पर से देखता है आदमी
पहचान नहीं पाता घर को
उस स्‍त्री स्त्री का जाना जैसे गायब हो जाना थासब जगह बर्बादी बरबादी के निशान छोड़ कर।छोड़कर ।
अस्‍तअस्त-व्‍यस्‍त व्यस्त दिखता है सारा कमरा,
कितनी क्षति हुई
देख नहीं पा रहा वह आदमी
सिरदर्द और आँसुओं आंसुओं के कारण।कारण ।
सुबह से कानों में गूँज रहा कुछ शोर-सा
वह होश में है या देख रहा है सपना?क्‍यों क्यों आ रहे हैं विचारहर क्षण समुद्र के बारे में।में ।
जब खिडकियों खिड़कियों पर लगे आले के बीच सेदिखाई नहीं पड़ता ईश्‍वर ईश्वर का संसार
दूर तक फैला अवसाद
दिखता हैं समुद्र की लंबी लम्बी निर्जनता की तरह।
प्रिय लगती थी वह
इतनी कि प्रिय लगती थी उसकी हर बात
जैसे प्रिय लगती हैं
समुद्र को अपनी लहरें, अपना तट।तट ।
तूफान तूफ़ान के बाद लहरें
जैसे डुबो देती हैं बाँस को,
उसकी आतमा की गहराई में
जो विचार से भी परे थे
नियति के अथाह से
लहरें उसे उठा लाई थी पास।थीं पास ।
असंख्‍य असंख्य बाधाओं के बीचखतरों ख़तरों से बचते हुए
लहरें उसे ऊपर उठाती रहीं, उठाती रहीं
और अंततअन्तत: ले आई आईं उसे एकदम पास।पास ।
और जब उसका यह चले जाना
संभव सम्भव है एक जबरदस्‍ती ज़बरदस्‍ती हो
चबा डालेगा यह अलगाव
उसकी हड्डियों को अवसाद समेत।समेत ।
और आदमी देखता है चारों तरफतरफ़
उस स्‍त्री ने जाने से पहले
उलट-पलट कर फेंक दिया है
अलमारी की हर चीज चीज़ को।
वह टहलता है इधर-उधर
Delete, Mover, Protect, Reupload, Uploader
53,693
edits