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|रचनाकार=विद्यापति
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आगे माई, जोगिया मोर जगत सुखदायक, दुःख ककरो नहिं देल
दुःख ककरो नहिं देल महादेव, दुःख ककरो नहिं देल !एही जोगिया के भाँग भुलैलक, धतुर खोआई धन लेल !
आगे माई, कार्तिक गणपति दुई जन बालक, जन भरी के नहिं जान !तिनक अभरन किछओ न टिकइन, रतियक सन नहिं कान !
आगे माई, सोना रूपा अनका सूत अभरन, अभरन अपने रुद्रक माल !अपना मँगलो किछ नै जुरलनी, अनका लै जंजाल !
आगे माई, छन में हेरथी कोटिधन बकसथी, वाहि देवा नहिं थोर !भनहिं विद्यापति सुनू हे मनाइनि, इहो थिका दिगम्बर मोर !</poem>