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पाप की गागर / विनीत मोहन औदिच्य

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अति वासना मन में लिए, परमार्थ के पथ से गिरा
भटके यहाँ जो हर घड़ी, अंतर अंधेरे से भरा
सुन काल ये संक्षिप्त है, मत पाप की गागर भरो
ईश्वर बहुत ही नेक है, बस न्याय से उसके डरो ।

देता रहा धोखा सदा, जो झूठ बोले नित्य ही
पर था नहीं साहस तनिक, जो बोल पाये सत्य भी
है कौन बंधन मुक्त अब, माया नहीं व्यापी किसे
सुख में जिया जो शांति से, दुख दंश ना मिलता जिसे?

सह कर दुखों को प्रेम से, जो ईश की इच्छा वरे
सत्संग का ही साथ कर, जो साधना भीषण करे
अति मान में अपमान में, रखता सदा ही साम्य हो
त्यागे सहजता से सभी, उन वस्तुओं को काम्य जो।

तुम लड़ सको तो ही लड़ो, कहती रही जीवन कली
बलिदान के खातिर सही, तो यातना भी फिर भली।।
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