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04:01, 13 नवम्बर 2022 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
|अनुवादक=
|संग्रह=साँझ हो गई
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<poem>
बड़े जतन से
जीवन भर जो, बाँधी थी
बीच बाट में-
गठरी अपनी छूट गई ।
डोर बाँध हम
छत को छूने वाले थे
संगी -साथी
कुछ तो दिल के काले थे
किसने काटे
छोर कि डोरी टूट गई ।
हम गगरी में
भरकर गंगाजल लाए
‘घट पापों का’
कहकर कुछ थे चिल्लाए
सबने फेंके
पाथर गगरी फूट गई ।
घर-द्वार छिना
छाँव नीम की, बाट छुटी
बेचा सबने
हमको जिसमें हाट लुटी
मिली शराफ़त
वही हमीं को, लूट गई ।
काज़ी तुम हो
दण्ड हमारे नाम लिखो !
भोर उन्हें दो
हमें आखिरी शाम लिखो
अपना क्या दुख
हमसे क़िस्मत रूठ गई ।
-0-
</poem>