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14:28, 16 नवम्बर 2022 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=सांत्वना श्रीकांत
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<poem>
'''1.रिक्तता...'''
दूर तक फैली थी 'रिक्तता'
काई की तरह
कहीं भी उग जाती है
जहां भी दिखती नमी
बाहें फैला विस्तार ले लेती है
दरअसल
यह रिक्तता ही है
जिसमें मै और तुम
रीत रहे...
'''2. इच्छा'''
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हम उस तरह चाहे जाने के
इच्छुक थे
जैसे
मृतक -देह से
लिपटे परिजन
वापस बुला लेना चाहते हैं अपने प्रिय को
'''3.अनुपस्थिति'''
साँसे भी नही भर पा रहे थे पूरी तरह
घड़ी पर टोह लगाए,
वक्त को वक्त दे रहे थे!
तुम्हारी ‘छुअन’ जो मनभर समेटी थी,
उससे जिजीविषा छाँटने की अपूर्ण कोशिश
में
दरअसल
अनुपस्थिति’ को ही महसूस कर रहे थे।
</poem>