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|रचनाकार=हरिवंशराय बच्चन
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अस्‍त रवि
 
ललौंछ रंजित पच्छिमी नभ;
 
क्षितिज से ऊपर उठा सिर चल कर के
 
एक तारा
 
मद-आभा
 
उदासी जैसे दबाए हुए अंदर
 
आर्द्र नयनों मुस्‍कराता,
 
एक सूने पथ पर
 
चुपचाप एकाकी चले जाते
 
मुसाफिर को कि जैसे कर रहा हो कुछ इशारा
 
जिंदगी का नाम
 
यदि तुम दूसरा पूछो,
 
मुझे
 
'संबंध' कहते
 
कुछ नहीं संकोच होगा।
 
किंतु मैं पूछूँ
 
कि सौ संबंध रखकर
 
है कहीं कोई
 
नहीं जिसने किया महसूस
 
वह बिल्‍कुल अकेला है कहीं पर?
 जिस 'कहीं' में  
पूर्णत: सन्‍नाहित है
 
व्‍यक्‍त‍ित्‍व और अस्तित्‍व उसका।
 
और ऐसी कूट एकाकी क्षणों में
 
क्‍या हृदय को चीर कर के
 
है नहीं फूटा कभी आह्वान यह अनिवार
 
"उड़ी चलो हँसा और देस,
 
हिंया नहीं कोऊ हमार!
 
और क्‍या
 
इसकी प्रतिध्‍वनि
 
नहीं उसको दी सुनाई
 
इस तरह की सांध्‍य तारे से कि जो अब
 
कालिमा में डूबती ललौंछ में
 
सिर को छिपाए
 
माँगता साँप बसेरा
 
पच्छिमी निद्रित क्षितिज से झुक
 नितांत एकांत-प्रेरा?</poem>
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