भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
{{KKCatGhazal}}
<poem>
आप मज़े में हैं तो क्या फ़स्ले बहार है
उससे पूछो जो अब तक बेरोज़गार है
ज़ख्मी पांवों में बालू के कण भी चुभते
शोषक बहुतेरे हैं, कोई मददगार है
 
सरकारें तो पहले ही मुंह फेर लिए हैं
करखानों-कंपनियों का भी बंद द्वार है
 
सत्ताधीशों, क्या तुम ज़िम्मेवार नहीं हो
क्यों मज़लूमों की बस्ती में अंधकार है
 
नोटों की मोटी गड्डी पर सोने वालो
जनता बख़्शेगी न उसे जो गुनहगार है
 
टूट गये वे सारे सपने जो देखे थे
कौन सुनेगा घायल मन की जो पुकार है
 
नम आंखों में अश्रु ही नहीं, शोले भी हैं
धरती-अंबर हिल जायें इतना ग़ु़बार है
</poem>
Delete, KKSahayogi, Mover, Protect, Reupload, Uploader
19,393
edits