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गौहर पाने जो निकला हो पत्थर चुनने लग जाए क्यों
स्वाती का जल जो पीता हो शबनम से प्यास बुझाये क्यों
छोड़ो बेकार की बातों को मैं तो बस इतना ही जानूं
प्यारा लगता हो चांद जिसे तारों पर आंख गड़ाये क्यों
 
यह मत भूलो वह पर्वत है अदना सा पेड़ नहीं कोई
आंधी –तूफां से घबराकर वह अपना शीश झुकाए क्यों
 
मुफ़लिस की मजबूरी भी है , मुफ़लिस की खुद्दारी भी है
खुद्दारी जिसका आभूषण पैसों पर वह बिक जाये क्यों
 
कैसे इंसान वो होंगे जो ईमान का सौदा करते हैं
जो शीश झुके उनके आगे हर दर पर वह झुक जाये क्यों
 
दो चार कदम संग चल लेंगे फिर उसके बाद में क्या होगा
तुम अपने घर , हम अपने घर फिर कोई नीर बहाये क्यों
 
ये तोहफ़े , ये सम्मान सभी , ये पुरस्कार रक्खो सारे
मेरा मन संत कबीरा है , कुछ पाने को ललचाये क्यों
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