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|रचनाकार=रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
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<poem>

चीरकरके हिमशिखर को
बींधकरके मर्म मेरा
दहला गई करुणा भरी
मुझे तेरी वो रुलाई।

कुटिल समय समझता नहीं
अनुराग की भाषा कभी
लोग पढ़ते ही कहाँ , कब
लिपि जो मर्म पर लिखी ।
भटके शिशु की सिसकी-सी
याद तेरी रोज़ आई ।

ये वक़्त कोरोना हुआ
संक्रमित सम्बन्ध सारे
लिखते रहे कपटी सखा
छल-भरे अनुबन्ध सारे ।
अपराध की सारी कथाएँ
सदैव उनके मन भाई ।
-0-

</poem>