भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

दोहा दशक-2 / गरिमा सक्सेना

2,103 bytes added, 05:22, 25 दिसम्बर 2022
'{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=गरिमा सक्सेना |अनुवादक= |संग्रह=ए...' के साथ नया पृष्ठ बनाया
{{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=गरिमा सक्सेना
|अनुवादक=
|संग्रह=एक नयी शुरुआत
}}
{{KKCatKavita}}
<poem>
कुछ चोटें गहरी मगर, दिखते नहीं निशान।
कुछ चीखें खामोश-सी, सुन कब पायें कान।।

चाहे कुहरे ने किये, लाखों कठिन सवाल।
पर सूरज के हाथ में, जलती रही मशाल।।

सिर्फ़ दिखावे तक रहा, अब कानूनी जोग।
हाथों की बातें नहीं, चाबुक पर अभियोग।।

तार-तार होती रही, फिर भी बनी सितार।
नारी ने हर पीर सह, बाँटा केवल प्यार।।

तितली-सी उन्मुक्त है, बेटी की परवाज़।
मगर कहाँ वह जानती, उपवन के सब राज़।।

धूप उजाला माँगती, जा दीपक के पास।
‘गरिमा’ कितना क्षीण अब, हुआ आत्मविश्वास।।

धूप ओढ़कर दिन कटे, शीत बिछाकर रात।
अच्छे दिन देकर गये, इतनी ही सौगात।।

नये दौर का आदमी, कितना है नादान।
अँधियारे को सींचकर, फल चाहे दिनमान।।

मुझे कभी भाया नहीं, इत्रों का बाज़ार।
मैं ख़ुद में जीती रही, बनकर हरसिंगार।।

रही फटकती उम्र भर, उम्मीदों के सूप।
नारी को पर कब मिली, कतरा भर भी धूप।।
</poem>
Mover, Protect, Reupload, Uploader
6,574
edits