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|रचनाकार=अबीर खालिङ
|अनुवादक=सुवास दीपक
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<poem>
जब छोटी थी
बाबा कहते थे
बेटी को एकदिन
बाबुल के घर से पराये घर
जाना पड़ेगा ।

मैं सोचती थी
दहलीज लांघना बेटी का कर्तव्य है ।

अब आज
सास कहती है
अपनी मर्जी से दहलीज पार नहीं करनी चाहिए
बहू-बेटियों को ।

दहलीज
बहन-बेटियों के लिए कौन-सा जङ्गाल है
जिसे तैर कर पार करना चाहिए या नहीं ?

बेटों के लिए
ऐसे जङ्गाल कितने हैं ?
</poem>
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