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{{KKRachna
|रचनाकार=कुमार कृष्ण
|अनुवादक=
|संग्रह=धरती पर अमर बेल / कुमार कृष्ण
}}
{{KKCatKavita}}
<poem>
बहुत बार सोचती हूँ एक दिन पूछूँगी-
क्यों चुरा लिए तुमने मेरे दिन
क्यों नहीं जीने दिया कुछ दिन और
मैं भी घूम लेती बादलों की पीठ पर
गर्म कपड़े पहन कर
तुम उड़ा ले गए मेरे सारे बसन्ती रंग
जिसे लाई थी मैं माँग कर जनवरी से
नहीं देख सके तुम जनवरी की जिन्दादिली
तमाम उलझनों के बाद भी वह आई थी बसन्ती कपड़ो में
हम दोनों बहनों को आता है ठंढ से लड़ना
हम दोनों सिखाती हैं दुनिया को-
आग से प्यार करना
सिखाती हैं ठंढ से लड़ने की कला
जिस समय आया मेरा आठवाँ दिन
ग़ज़ल का राग लेकर आए
इस धरती पर उस दिन जगजीत सिंह
अपने इक्कीसवें दिन-
मैंने ही पैदा किए थे निराला
दसवें दिन मुझे ही विदा करना पड़ा
नम आँखों से धूमिल
वह कविता के चाकू से लड़ना चाहता था-
एक बहुत बड़ी लड़ाई संसद से सड़क तक
अरे मार्च बाबू-
तुम मेरे चुराये हुए दिनों से कितने भी बड़े हो जाओ
उड़ने लगो चाहे सूरज के पंख लेकर
नहीं जान पाओगे-
किस घर से चुरा कर लाते हैं फूल
अपनी पगड़ी के रंग
तमाम पेड़ कहाँ सिलवाते हैं अपने-
नये-नये कपड़े
तुम नहीं ढूँढ पाओगे कभी सर्दी की साँवली आँखें
कभी बही खाते से फुर्सत मिले तो सोचना-
किस रुमाल में छुपा कर रखती है फरवरी अपने आँसू
अपने सपने
धरती के किस कोने में छुपाती है-
अपने दिनों को चुराने की पीड़ा।
</poem>
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|रचनाकार=कुमार कृष्ण
|अनुवादक=
|संग्रह=धरती पर अमर बेल / कुमार कृष्ण
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<poem>
बहुत बार सोचती हूँ एक दिन पूछूँगी-
क्यों चुरा लिए तुमने मेरे दिन
क्यों नहीं जीने दिया कुछ दिन और
मैं भी घूम लेती बादलों की पीठ पर
गर्म कपड़े पहन कर
तुम उड़ा ले गए मेरे सारे बसन्ती रंग
जिसे लाई थी मैं माँग कर जनवरी से
नहीं देख सके तुम जनवरी की जिन्दादिली
तमाम उलझनों के बाद भी वह आई थी बसन्ती कपड़ो में
हम दोनों बहनों को आता है ठंढ से लड़ना
हम दोनों सिखाती हैं दुनिया को-
आग से प्यार करना
सिखाती हैं ठंढ से लड़ने की कला
जिस समय आया मेरा आठवाँ दिन
ग़ज़ल का राग लेकर आए
इस धरती पर उस दिन जगजीत सिंह
अपने इक्कीसवें दिन-
मैंने ही पैदा किए थे निराला
दसवें दिन मुझे ही विदा करना पड़ा
नम आँखों से धूमिल
वह कविता के चाकू से लड़ना चाहता था-
एक बहुत बड़ी लड़ाई संसद से सड़क तक
अरे मार्च बाबू-
तुम मेरे चुराये हुए दिनों से कितने भी बड़े हो जाओ
उड़ने लगो चाहे सूरज के पंख लेकर
नहीं जान पाओगे-
किस घर से चुरा कर लाते हैं फूल
अपनी पगड़ी के रंग
तमाम पेड़ कहाँ सिलवाते हैं अपने-
नये-नये कपड़े
तुम नहीं ढूँढ पाओगे कभी सर्दी की साँवली आँखें
कभी बही खाते से फुर्सत मिले तो सोचना-
किस रुमाल में छुपा कर रखती है फरवरी अपने आँसू
अपने सपने
धरती के किस कोने में छुपाती है-
अपने दिनों को चुराने की पीड़ा।
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