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इन्तजार / कुमार कृष्ण

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|संग्रह=धरती पर अमर बेल / कुमार कृष्ण
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<poem>
दादी जानती थी-
विक्टोरिया का सिक्का ही है
उसके दुःखी दिनों का साथी
मजबूत गाँठ में बाँध कर रखती थी हमेशा-
अपनी चुनरी के साथ
विक्टोरिया का सिक्का नहाता था हर रोज
दादी की चुनरी के साथ
जाता था घास काटने दादी के साथ
दादी सुनाती थी बहुत बार
सिक्के की कहानी-
राजा निकलता था जब दौरे पर
फेंकता था सिक्के लोगों की ओर
आज न दादी है न विक्टोरिया का सिक्का
न सिक्के फेंकने वाला राजा
जिधर देखो उधर नये राजा की तस्वीरें हैं
राजा करवा रहा है मुनादी-
उसने काट डाले हैं अपनी तलवार से दुःख के पाँव
वह एक दिन बादलों के बस्तों में सुराख करेगा
बस तुम इन्तजार करो धन-वर्षा का।
</poem>