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बूझो / कल्पना मिश्रा

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<poem>
साथ जन्में थे हम
पर उम्र अलग अलग थी
मैं बढ़ता गया वह घटती गई
तय था एक दिन हमारा मिलना
पर मिलते तो दो में से
एक ही रह पाता
मैं उससे मिलना टालता रहा
ठेलता रहा उस दिन को और आगे
कोशिश करता रहा उसे भूलने की
पर आज उससे मेरा आलिंगन हो ही गया
और मैं समा गया उसमें
मैं खत्म हो गया और वो अमर
बूझा तुमने मैं हूँ कौन
मैं हूँ जीवन और वो है मृत्यु।
</poem>