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|रचनाकार=मोहम्मद मूसा खान अशान्त
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<poem>
हुए जाते हैं वो ख़ुद बेक़रार आहिस्ता-आहिस्ता
लिपटते जाते हैं दामन से ख़ार आहिस्ता-आहिस्ता

नहीं छँटते हमारी ज़िंदगी से ग़म के बादल क्यूँ
हुई जाती हैं आँखे आबशार आहिस्ता-आहिस्ता

ज़रा सी खाक़ जो बाक़ी बची थी क़ब्र पर मेरी
कि वो भी उड़ गई बनकर ग़ुबार आहिस्ता

बदलता जा रहा है ये ज़माना किस क़दर यारों
उठा जाता है अब दुनियां से प्यार आहिस्ता-आहिस्ता

मुझे हासिल यही होगा फ़िराके यार से मूसा
कि दिल हो जाएगा बेइख्तियार आहिस्ता-आहिस्ता
</poem>