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<poem>
हमें तक़सीम करने का हुनर उन पर निराला है ।
वो उसके कान भरते हैं जो मेरा हम-पियाला है।

ज़माने भर के रंजो-ग़म कभी मुझको दिए उसने,
कभी जब लड़खड़ाया तो मुझे बढ़कर संभाला है।

मुखौटे वो सदा झूठे लगाकर हमसे है मिलता,
बहुत शातिर पड़ोसी है जनम से देखा-भाला है।

किया जो बज़्म में ज़िक्रे-वफ़ा उनकी तो वो बोले,
नहीं जो मुद्दआ उस बात को फिर क्यूँ उछाला है।

जिन्होंने हक़-परस्ती भूलकर पैसा कमाया बस,
कहाँ उनके भी मुँह में कोई सोने का निवाला है?

बिके हैं लोग देने को गवाही झूठ के हक़ में,
मगर सच जानते हैं जो उन्हीं के मुँह पे ताला है।

बुराई ख़त्म करने को बुरों का हाथ भी थामा,
'असर' काँटे से हमने पाँव का काँटा निकाला है ।
</poem>