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बची रहे / रुचि बहुगुणा उनियाल

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<poem>
बचा रहे प्यास बुझाने जितना
पानी बादलों की कोख में....,

दुनियाभर के दुःखों की कठोरता के उत्तर में
धरती के आँचल में
नर्म दूब बची रहे..,

ज़रा-सी लाज बची रहे
ताकि बचा रहे स्त्रीत्व...,

बूढ़ों के सामने नई पीढ़ी की
आँखों में थोड़ी सी शर्म के साथ
बचा रहे लिहाज़ जरा-सा..,

द्वार पर आए साधु को
देने के लिए कोठार में नाज बचा रहे जरा-सा,

तुम्हारे भीतर बची रहे मेरी याद जरा-सा
जरा-सा मुझसे मिलने की इच्छा बची रहे,

दूर होने पर भी दोनों के बीच बचा रहे प्यार जरा-से विश्वास का दामन थामे हुए
ताकि दुनिया जीने लायक बची रहे जरा-सी !</poem>
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