Changes

कैवल्य / अजन्ता देव

922 bytes added, 14:06, 14 नवम्बर 2008
<Poem>
झुलनिया के एक आघात से
पहुँचाऊंगी पाताल
सुलाऊंगी शेषनाग के फन पर
डोलेगी धरा
डोलेगी तुम्हारी देह
मेरी लय पर
कभी पैंजनिया कभी पायलिया झंकारेगी
परन्तु कोई नहीं आएगा
इस एकान्त में
जिसे रचा है मैंने
अंधकार के आलोक से
 
रुको नहीं चले चलो
भय नहीं केवल लय
मैं नहीं तुम कहोगे कैवल्य
मैंने तो गढ़ा है इसे
मैं जानती हूँ इसका मामूली अर्थ
मैं हर रात यह प्रदान करती हूँ ।
</poem>
Delete, Mover, Protect, Reupload, Uploader
54,165
edits