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{{KKRachna
|रचनाकार=डी. एम. मिश्र
|संग्रह=ग़ज़ल संचयन / डी. एम. मिश्र
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<poem>
हमें मुमराह करके क्या पता वो कब निकल जाये
बड़ा वो आदमी है क्या ठिकाना कब बदल जाये

ज़रूरी हो जहाँ दूरी बना करके रहा करिये
किसी मासूम को कब छिपकली गप से निगल जाये

दग़ा देकर गया जो वो तो पहले से पराया था
पता चलता नही कब आँख का काजल निकल जाये

इसे दीवानगी कहते उसे बस रोशनी दिखती
मगर ये कौन बतलाये कि परवाना सँभल जाये

बहुत सोचोगे तो तुमसे मुहब्बत हो न पायेगी
वो दिल ही क्या न जो उसकी अदाओं पर मचल जाये

उसे मौका मिले तो वो जुबां भी काट ले मेरी
यही वो चाहता है, बस ज़ुबाँ मेरी फिसल जाये

ख़ु़दा या तो यही कर दे किनारे पर लगे कश्ती
ख़ु़दा या फिर यही कर दे कि साहिल ही बदल जाये

</poem>
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