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1219
कूप तरसते नीर को, मिटती है कब प्यास ।
सूखी हैं नदियाँ सभी, तट भी हुए उदास ॥
2220
लिख-लिख पाती भेजता, यह मौसम प्रतिकूल ।
कंधे चढ़कर चल रही, पथ की अंधी धूल॥
3221
टँगी हवा है नीम पर, झुलस उठी है छाँव।
सामन्ती दोपहर में, क़ैदी है हर गाँव ॥
4222
आँखों में चुभने लगी, किरच-किरच बन धूप ।
सूनी-सूनी माँग-सा, लगता है अब रूप ॥
5223
सबको अपनी है पड़ी, बन्द हैं मन के द्वार।
रह-रहकर चुभने लगी, सुधियों -पगी कटार॥
'''-0-[8-9-85: वीणा अक्तुबर-85]'''
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