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ऐसा नहीं है कि माँ को कोई दुःख दुख है
लेकिन जब घर जाकर वापस लौटता हूँ
माँ रोती है
माँ तब भी रोई थी
अपने नीम के पेड़ के नीचे खड़े होकर
अपने घुंघट घूँघट में आंसुओ आँसुओं को छुपाकर
उस दूर कोने तक जहाँ से मुड़ने के बाद
माँ नहीं दिखती थी
हममें हम में हिम्मत नहीं थी कि मुड़के देख सकें माँ को
माँ हर बार रोती थी
गठरियों में बाँधते हुए चावल, आटा और दाल
 
शहर पहुँचते ही
दीवार में टंगे कैलेंडर पर टँगे कैलेण्डर की तारीखों तारीख़ों में
खिंच जाता था एक गोला
अगली बार कब जाना है
माँ से मिलने
यह जानते हुए भी कि माँ फिर रोएगी माँ एक-एक कर हमको भेजती रही रहती है शहर
और रोती रहती है हर बार
हमको विदा करके ।
</poem>
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