भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
<poem>
हर दिन तो एक जंगल है, बेउला !
दृश्यों में नहीं कोई रंग नहीं है, बेउला !
छोटी-छोटी बातों में भी धैर्य दिखलाओ ।
फिर इस जीवन से, भला, क्यों न ऊब जाओ ।
ज्यों बरछियों ने बोला हो धावा
फिर उसके धूसर कपड़े भी दोपहर
जीवन को बनाते हैं लावा ।
उसे याद आते हैं लोग
ज़िन्दगी को बना दिया था पूरी आतिश
तब जिससे मन को थोड़ी छाँह मिली थी
हाँ, याद आ गया
नाम था उस बौड़म का मियाँ — मौरिस