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वे केवल निर्जन के दिशाकाश की,
प्रियतम के प्राणों के पास-हास की,
भीरु पकड़ जाने को हैं दुनियाँ दुनिया के कर से--
बढ़े क्यों न वह पुलकित हो कैसे भी वर से।
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