भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
<poem>
मेरा वेतन ऐसे रानी
जैसे गरम तवे पे पानी ।
एक कसैली कैंटीन कैण्टीन से थकन उदासी का नाता है , वेतन के दिन - सा ही निश्चित पहला बिल उसका आता है , हर उधार की रीत उम्र - सी जो पाई है सो लौटानी ।
ओछी फटी हुई चादर में
एक ढकु ढकूँ तो दूजी लाजे , कर्जा क़र्ज़ा लेकर क़र्ज़ चुकाना अंगारों से आग भुजानी ।
ये अभाव के दिन लावे - से
घुटते तेरे मेरे मन में,
अग्निगीत बनकर फैलेंगे
गाँवों - शहरों में, जन - जन में ।
जिस दिन नया सूर्य जनमेगा
तेरे जूड़े कली लगानी ।
</poem>