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|रचनाकार=विनीत मोहन औदिच्य
}}
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अत्यंत लज्जा जनक होता व्यापक शक्ति का व्यर्थ क्षरण
संभोग की इतिश्री से रतिक्रिया अंत तक वासना रहे पास
निर्मम कामुकता कराती वचन भंग, दोषारोपण, लाती मरण
असभ्य, अतिरंजित, जंगली, जिस पर न हो सकता विश्वास ।
सुखानिभूति उपरांत अविलम्ब उपजाती अप्रिय विरक्ति
पूर्व में खोजी जाती व्यग्रता से, लक्ष्य सिद्धि उपरांत
होती कारक घृणा का, ज्यों मत्स्य की प्रलोभन अनुरक्ति
जो जाल बिछाया जाता प्राप्त कर्ता को करने अशांत ।
अनुसरण और प्राप्ति में करती है ये वासना उन्मत्त
पाकर, पाते हुए और पाने की खोज में टूटती हर सीमा
प्राप्ति कराती स्वर्गीय अनुभूति, लाती व्यथा हो कर प्रदत्त
पूर्व में संभावित आनंद, समाप्ति पर शेष रहता स्वप्न धीमा।
विश्व को है सर्व विदित, फिर भी कोई न जान पाता!
त्याग देता मनुज स्वर्ग जो इसे नर्क द्वार तक ले जाता।।
</poem>
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|रचनाकार=विनीत मोहन औदिच्य
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अत्यंत लज्जा जनक होता व्यापक शक्ति का व्यर्थ क्षरण
संभोग की इतिश्री से रतिक्रिया अंत तक वासना रहे पास
निर्मम कामुकता कराती वचन भंग, दोषारोपण, लाती मरण
असभ्य, अतिरंजित, जंगली, जिस पर न हो सकता विश्वास ।
सुखानिभूति उपरांत अविलम्ब उपजाती अप्रिय विरक्ति
पूर्व में खोजी जाती व्यग्रता से, लक्ष्य सिद्धि उपरांत
होती कारक घृणा का, ज्यों मत्स्य की प्रलोभन अनुरक्ति
जो जाल बिछाया जाता प्राप्त कर्ता को करने अशांत ।
अनुसरण और प्राप्ति में करती है ये वासना उन्मत्त
पाकर, पाते हुए और पाने की खोज में टूटती हर सीमा
प्राप्ति कराती स्वर्गीय अनुभूति, लाती व्यथा हो कर प्रदत्त
पूर्व में संभावित आनंद, समाप्ति पर शेष रहता स्वप्न धीमा।
विश्व को है सर्व विदित, फिर भी कोई न जान पाता!
त्याग देता मनुज स्वर्ग जो इसे नर्क द्वार तक ले जाता।।
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