गृह
बेतरतीब
ध्यानसूची
सेटिंग्स
लॉग इन करें
कविता कोश के बारे में
अस्वीकरण
Changes
ठहर, कल झील निकलेगी इसी से / 'सज्जन' धर्मेन्द्र
7 bytes added
,
26 फ़रवरी
बचाये रब ही ऐसे पारखी से।
समय भी भर नहीं पाता है
इनको
इसको
,
सँभलकर
सँभल कर
घाव देना लेखनी से।
हकीकत
हक़ीक़त
का मुरब्बा बन चुका है,
समझ
लगा
बातों में लिपटी चाशनी से।
उफनते दूध की तारीफ ‘सज्जन’,
कभी मत कीजिए बासी कढ़ी से।
</poem>
Dkspoet
Delete, KKSahayogi, Mover, Protect, Reupload, Uploader
19,164
edits