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Kavita Kosh से
मौके की, माहौल और क़ीमत की देरी थी,
‘माल बिकाऊ है’ सबकी गर्दन में मिला टँगा।टँगा मिला।
भीड़ लगी थी अंधे, बहरे, गूँगों गूँगे पशुओं की वाँ पर,
अपनी जान बचाने में हर एक गया कुचला।
देख न पाया कोई वन में नाचा मोर नाचना भीबहुत,कौन जानता है जंगल में कितना खून ख़ून बहा।
बेईमान हुआ अब ‘सज्जन’ बड़ा क़साई भी,
बिका है कोई, कैद में कोई, कोई और कटा।
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