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सूरज सर पर आया देख / रवि ज़िया

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सूरज सर पर आया देख
तू भी कोई साया देख

बढ़ता जाये सालों साल
यादों का सरमाया देख

उस के घर पर दस्तक दे
चुप है क्यों हम-साया देख

घर से ख़्वाब समंदर का
साहिल तक ले आया देख

किस दरिया में डूब गया
मंज़र सजा सजाया देख

ख़ुश-फ़हमी से बाहर आ
दुनिया तो है माया देख

तोड़ के इक नाज़ुक सा ख़्वाब
दिल कितना पछताया देख

ख़ुद को खोने की धुन में
मैंने क्या कुछ पाया देख

गुज़रे मौसम याद आए
पागल मन भर आया देख

नाहक़ ख़ून बहा कर भी
शहर नहीं शरमाया देख

फिर फ़ुर्क़त की रुत आई
फिर ये दिल घबराया देख

कभी कभी तो लगता है
अपना शहर पराया देख

बन्द दरीचे खोल 'ज़िया'
कौन गली में आया देख।
</poem>
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