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<poem>
किस नाइन ने हैं रँगे, इस पूरब के पाँव।
जिसे देखने जग रहा, धीरे-धीरे गाँव।।

कहन, भाव, चितवन, छुवन, ढोलक, ढोल, मृदंग।
धीरे-धीरे रँग गये, सब फागुन के रंग।।

हरी-पीत धरती हुई, टेसू जैसे गाल।
नभ पर रंग पतंग का, धूसर हुआ गुलाल।।

फूल, धूल औ भूल का, आया ज्यों त्योहार।
साँकल खटकाने लगा, द्वार-द्वार शृंगार।।

तन हल्दी से ज्यों रँगा, गयी कामना जाग।
फिर क्या था अँगड़ाइयाँ, लगीं खेलने फाग।।

लोक धुनों की चाशनी, दो-अर्थी संवाद।
क़िस्से ताज़ा कर गयी, परदेसी की याद।।

मनमोहन ने पास आ, ज्यों ही पूछा हाल।
टेसू जैसे हो गये, उसके दोनों गाल।

होली में जब प्रीत के, पूरे हुए उसूल।
अधरों पर दिखने लगे, तब सेमल के फूल।।

पायल की झनकार तब, और हो गई तेज़।
पिचकारी से रँग गया, जब मन को रँगरेज़।।

दो पंखुड़ियों ने किया, अधरों से संवाद।
फागुन-फागुन हो गया, मन पैठा अवसाद।।

अंग-अंग उड़ने लगा, जैसे उड़े गुलाल।
बाहों में भर प्यार ने, जब भी चूमा गाल।।
</poem>
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