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सेठ करोड़ीमल के घोड़े का नौकर है
:::भूरा आरख।–आरख। –:बचई उसका जानी दुश्मन!
हाथ जोड़कर,
बदहवास लाचार हृदय से,
खाने को घोड़े का दाना
आध पाव ही बचई ने भूरा से माँगा।माँगा ।
लेकिन उसने
बेचारे भूखे बचई को,
नहीं दिया घोड़े का दाना;
दुष्ट उसे धक्का ही देता गया घृणा से!
तब बचई भूरा से बोला :
वैसे ही सरपट भागेगा;
आध पाव की कमी न मालिक भी जानेगा;
पाँच सेर में आध पाव तो यों ही , भूरा!
आसानी से घट जाता है;
कुछ धरती पर गिर जाता है;
तौल-ताल में कुछ कमता है;
कुछ घोड़ा ही, खाते-खाते,-::इधर उधर छिटका देता है।है ।
आध पाव में , भूरा भैया!
नहीं तुम्हारा स्वर्ग हरेगा
नहीं तुम्हारा धर्म मिटेगा;
धर्म नहीं दाने का भूखा!-स्वर्ग नहीं दाने का भूखा!-
आध पाव मेरे खाने से
कोई नहीं अकाल पड़ेगा।’पड़ेगा ।’
पर, भूरा ने,
काले नोकीले काँटों से,
बेचार बचई के कोमल दिल को
छलनी छलनी कर ही डाला।डाला ।
जहर बूँकता फिर भी बोला :
‘नौ सौ है घोड़े का दाम!-तेरा धेला नहीं छदाम।छदाम ।जा, चल हट मर दूर यहाँ से।’से ।’
अपमानित अवहेलित होकर,
बुरी तरह से जख्मी ज़ख़्मी होकर,अब गरीब ग़रीब बचई ने बूझा :
पूँजीवादी के गुलाम भी
बड़े दुष्ट हैं;-
मानव को तो दाना देते नहीं एक भी,
घोड़े को दाना देते हैं पूरा;
मृत्यु माँगते हैं मनुष्य की,
:पशु को जीवित रखकर!
रचनाकाल: १२-०४-१९४६
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