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<poem>
वायरस हो क्या!
जो लहू में संक्रमण की तरह फैलते ही जा रहे हो।
या फिर परिमल जिस की सुगंध खींच लेती है अपनी ओर।
या व्योम में अंतर्ध्यान शिव
जो जग को मोहित कर लीन है तपस्या में।
या फिर सूरज
जिसकी ऊर्जा से जीवन पाता है यह संसार।
या फिर विशाल गहरे सागर हो तुम
जो हर अच्छाई बुराई को अपने अंदर समा लेते हो कुछ नहीं कहते।
या वैद्य हो
जो प्रेम में पनपी
व्याधियों को ठीक कर देता है।
शायद गंधर्व के वाद्य यंत्र से उपजे ध्रुपद हो तुम।
जिसका माधुर्य लावण्यता अलंकृत कर देती है मुझे।
ठुमरी की थिरकन में बसी ताल हो तुम
कुछ भी हो बेमिसाल हो तुम।
</poem>
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