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{{KKRachna
|रचनाकार=अवधेश कुमार
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
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<poem>
भाषा में से सड़ान्ध आ रही है।
विरोध की भाषा को, पकने से पहले
सत्ता के भय का कीड़ा चाट रहा है, अब भी :
अब भी सत्ता सर्वशक्तिमान है; उसका पंजा
गले से आवाज़ के निकलते ही
आवाज़ का गला दबोच लेता है
सड़ान्ध में से भाषा आ रही है ।
कभी आदमी ने भाषा ईजाद की थी : मगर
अभी भाषा किसी आदमी को
ईजाद नहीं कर पा रही ।
शब्दों को
या तो हँसने और रोने से
पहले निगल लेते हैं : या फिर
हँसने और रोने के बाद उगल देते हैं ।
हम, हमेशा उन्हें अपने साथ नहीं
रखना चाहते, हम उनसे डर गए हैं
वे हमारी हँसी और हमारे रोने को
पागलपन और यातना में बदल देते हैं ।
हम शब्दों के कारतूस हो जाने से डरते है
क्योंकि हम बन्दूक़ नहीं हो सकते ।
भाषा में से सड़ान्ध आ रही है
या सड़ान्ध में से भाषा आ रही है
या बारूद में से भाषा आ रही है
या भाषा में से बारूद आ रहा है ।
हम किसी निष्कर्ष पर पहुँचने लगते हैं
तो या तो हमें हँसी आने लगती है
या फिर हम रोने लगते हैं ।
</poem>
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|रचनाकार=अवधेश कुमार
|अनुवादक=
|संग्रह=
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भाषा में से सड़ान्ध आ रही है।
विरोध की भाषा को, पकने से पहले
सत्ता के भय का कीड़ा चाट रहा है, अब भी :
अब भी सत्ता सर्वशक्तिमान है; उसका पंजा
गले से आवाज़ के निकलते ही
आवाज़ का गला दबोच लेता है
सड़ान्ध में से भाषा आ रही है ।
कभी आदमी ने भाषा ईजाद की थी : मगर
अभी भाषा किसी आदमी को
ईजाद नहीं कर पा रही ।
शब्दों को
या तो हँसने और रोने से
पहले निगल लेते हैं : या फिर
हँसने और रोने के बाद उगल देते हैं ।
हम, हमेशा उन्हें अपने साथ नहीं
रखना चाहते, हम उनसे डर गए हैं
वे हमारी हँसी और हमारे रोने को
पागलपन और यातना में बदल देते हैं ।
हम शब्दों के कारतूस हो जाने से डरते है
क्योंकि हम बन्दूक़ नहीं हो सकते ।
भाषा में से सड़ान्ध आ रही है
या सड़ान्ध में से भाषा आ रही है
या बारूद में से भाषा आ रही है
या भाषा में से बारूद आ रहा है ।
हम किसी निष्कर्ष पर पहुँचने लगते हैं
तो या तो हमें हँसी आने लगती है
या फिर हम रोने लगते हैं ।
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