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पटकथा / अनिल मिश्र

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ये हवा जो मेरे घर दस्तक दे रही है
उसको यहीं आना था
थोड़ी धूल थोड़ी खुशबू लेकर
खटखटाना था उसे कुछ देर
दरवाजे की सांकल

मेरे इस प्रदेश में
आज के दिन : यानि 24 अक्टूबर को
गुजरना था घड़ी के राजमार्ग पर
11 घंटे 15 मिनट में

दो दिन पहले तक हरी पत्तियां अचानक पीली पड़ने लगी हैं
रुखसती के दिन की लकीर चमकती है आसमान पर
सूखने लगती है आंखो में नमी
खंरोच और घाव के निशान हैं मौसम के सीने पर
प्रकृति के रंग भवन में न रहम है न मोहलत
सब कुछ तय होता है एक पटकथा के अनुसार

लड़की प्रतिशोध लेते लेते प्रेम में पड़ जाती है
कहानी यहीं से करवट लेती है
और शुरू होता है नया अध्याय

दंगाग्रस्त शहर में कर्फ्यू लगा दिया गया है
इतनी महगाई इतनी बेरोजगारी में
जनता के पास
सड़क पर उतरने के सिवा क्या रास्ता था ?
समस्याओं को लगभग ठेल कर भेजा गया
खिलाड़ियों द्वारा शतरंज के बोर्ड से

हजारों मवेशियों को मर जाना था
सैंकड़ों मनुष्यों को हो जाना था बाढ़ की भेंट
बांध टूटने थे फसलें डूबनी थीं
बादलों को झख मार कर फटना था
इन्द्र को जो गुस्सा आया

बच्चे याद कर रहे हैं किताब का पाठ
नदी सोई है अपने धवल बिस्तर में शांत
हाजिरी के लिए लाइन में खड़े हैं दिहाड़ी मजदूर
हर भूकम्प के पहले ऐसा ही कुछ दृष्य होता है
इसके बाद शुरू होती है अंधी दौड़ कैमरों की
</poem>