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|रचनाकार=पेरुमाल मुरुगन
|अनुवादक=मोहन वर्मा
|संग्रह=एक कापुरुष के गीत / पेरुमाल मुरुगन / मोहन वर्मा
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<poem>
भाषा को पखारते
किसी की झाड़ू में
मकड़ी के जाल जैसा
जो कुछ आ लिपटा है
वे सब संज्ञाएँ हैं

जब वह
गन्धाते ढेर की सफ़ाई करते-करते
लोगों के नाम छाँट निकाल फेंकता है
कचरे का अम्बार और ऊँचा हो जाता है

लोगों के नामों के साथ-साथ
स्थलों के नाम भी
कचरे के ढेर पर आ जाते हैं

वस्तुओं के लिए संज्ञाएँ
समय के लिए संज्ञाएँ
संज्ञाएँ गुणों के लिए
संज्ञाएँ शरीर के विभिन्न अंगों के लिए
कुछ भी तो नहीं बचता

और अब
शब्दकोश पर
सभी जगह
मात्र क्रियापद उछलकर आ गए हैं

भाषा माता की याचना पर
जो हिमशिला बन खड़ी है
वह तरस खाता है और उदार होकर
कुछ संज्ञाओं को आने की आज्ञा दे देता है
परन्तु वे लोगों के नाम न हों
और न ही उन स्थलों के जहाँ वे रहते हैं

परन्तु भाषा माता की मिन्नतों के दंश को
वह सह नहीं पाता है
सर्वनामों को भी आने की अनुमति दे देता है
और अपनी झाड़ू को
चुपचाप एक कोने में खड़ी कर देता है ।

'''अँग्रेज़ी से अनुवाद : मोहन वर्मा'''
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