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<poem>
मैंने सहज गीत गाये हैं
अभिनंदन के
'विदा गीत' लिख पाऊँ
यह सबसे दुष्कर है

जिसने अपनी प्रेमिल
यात्राओं में देखा
खजुराहो से मन का
वृंदावन हो जाना
बोलो तुम ही
कैसे वह स्वीकार करेगा
आँखों के विरही पथ का
पाहन हो जाना

जाओ लेकिन
पदचिह्नों को आगत रखना
भ्रम में कोई जीने को
अब भी तत्पर है

सोच रहा हूँ कैसे थामेगी
कोलाहल
प्रेम भरे वचनों से
काँप उठी जो नदिया
कैसे कंटक भरे राह पर
चल पाएँगे
जिस पग में अक्सर ही
चुभ जाती थी बिछिया

ठोकर मार रहे हो
मन में बसे प्रेम को
मगर सँभलना पग-पग पर
आगे ठोकर है

मेरे मन के अंधकार को
हरने वाले
उकाताई शामों का दीपक
मत बन जाना
गुलमोहर सा कड़ी धूप में
खिल उठना तुम
हरसिंगार सा बिछना लेकिन
मत कुम्हलाना

जाओ तो विश्वास लिए
जाओ इस पथ से
उभर न आए पछतावा
बस इसका डर है
</poem>
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