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Kavita Kosh से
फूलों की क्यारी के बीच, अब करता नहीं कोई आराम,
हाँ, कभी-कभी दिख जाते हैं, इन खेतों के बीच हलवाहे
श्रम करने पर करके अब उतार रहे जो, दिन- दोपहर अपनी थकान ।
कुछ निडर वनपशु दिख जाते हैं, भाग रहे हैं इधर-उधर,
छिपने को बसेरा खोज रहे, सिहरे मौसम का देख कहर,
चाँद भी धुँधला हो गया है, ख़ूब झर - झर उतर रहा कोहरा,रात चाँदनी सी चमके है, पर आभा उसकी है धूसरपीली-धूसर ।
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