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<poem>
किसने सोचा था किसी रोज़ ये मंज़र होगा
अपनी आवाज़ में बस शोर सुनाई देगा ।
गाँव के बीच पहुँचकर जो नज़र उट्ठेगी
अपना घर दूर बहुत दूर दिखाई देगा ।।

इतना थक जाउँगा गिरने की न हिम्मत होगी
और अगर गिर गया उठने की न ताक़त होगी ।
दिन में मुड़कर न मेरी सिम्त कोई देखेगा
शाम घिर आएगी तो और भी आफ़त होगी ।।

बरहमी यार की पहले भी बहुत देखी है
प्यार उसका कभी तोला कभी माशा होगा ।
गाँव के गिर्द सरे-आम मुनादी कर दो
मेरे आँगन में खलाओं का तमाशा होगा ।।

शेर कहने की सज़ा झेल चुका हूँ काफ़ी
ग़ारे-गुमनामी में महफ़ूज़ उतर जाने दो ।।

12-02-2023

'''शब्दार्थ'''
रहमी=नाराज़गी
खला=शून्य
महफ़ूज़=सुरक्षित
</poem>
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