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बेटियाँ / महेश कुमार केशरी

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<poem>
बेटियाँँ , ससुराल में
जल्दी ही बुनने
लगती हैं ,रिश्ते
किसी चिडियाँँ के घोंसले की
तरह

पराये, घर में आकर
उसे अपना घर मानने
लगतीं हैं

काकी, मामी, चाची,
बऊआ - बबुआ कहकर
वे देने लगतीं हैं, सबको
मान-सम्मान

और कुम्हार
के चाक पर बरतनों की तरह
वे गढनें लगती हैं
रिश्ते

उन्हें, छोटे- बड़े,
टोले- मुहल्ले
का भी ख़ास ध्यान
रखना पड़ता है

उन्हें, बड़े-छोटों के साथ
अपने शब्दों के चयन को
लेकर, सतर्क रहना
पड़ता है

डालनी पड़ती हैं
उनको सबसे हँसकर
बातें करने की आदत

रात को जब चांँद धरती
पर उतरकर
रात में तब्दील
हो जाता है

और, आंँखें भींगनें
लगतीं हैं आँसूओं से

ढुलकने लगतें हैं
तब आँखों के कोर से बहुत
पीछे कहीं छूट गये रिश्ते !
</poem>
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