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<poem>
अब चढ़ावे
पा रहे वरदान सारे
प्रार्थनाएँ मान अब पाती नहीं
देवता भी मौन हैं

खा रहे ठोकर समर्पण
डर रहा है सत्य का स्वर
भाग्य में वे लिख रहे हैं
अब प्रयत्नों का अनादर

नित्य सुनना चाहते
गुणगान सारे
आस्थाएँ मान अब पाती नहीं
देवता भी मौन हैं

धर्म के अब यज्ञ चुप हैं
हर तरफ़ केवल धुआँ है
प्यास हम कैसे मिटाएँ
सामने अंधा कुआँ है

ज्ञान जैसे हो गये
अज्ञान सारे
भावनाएँ मान अब पाती नहीं
देवता भी मौन हैं

अर्थ युग की बात है सब
अब कहाँ संकल्प, प्रण है
कर्म-काण्डों का कहाँ अब
धर्म संगत आचरण है

हो गये हैं मूल्य
अंतर्धान सारे
याचनाएँ मान अब पाती नहीं
देवता भी मौन हैं
</poem>
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