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|रचनाकार=हरिभक्त कटुवाल
|अनुवादक=सुमन पोखरेल
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<poem>
अंदर ही अंदर खोखला होकर बाहर से जी रहा
एटम के त्रास द्वारा चूसा हुआ
समस्याओं के भूत से सताया हुआ
ये जिन्दगी भी क्या जिन्दगी !

बंदूक की नाल पे सिर रख के सोना होता है यहाँ
खुकुरी की धार पे पैर रख के जीना होता है यहाँ
आँख बंद करना भी भयावह, आँख खोल लेना भी भयावह
ये जिन्दगी भी क्या जिन्दगी !

दुकान में शोकेस के अंदर सजा कर रखी हुई
शीशे की चूड़ियों सी यह जिन्दगी
किसी नवयौवना के हाथ पे चढ़ते-चढ़ते
चटाक से फूट सकती है ये जिन्दगी !

रबर की सस्ती चप्पल सी यह जिन्दगी
रास्ते पे चलते-चलते
पटाक से टूट सकती है यह जिन्दगी
ये जिन्दगी भी क्या जिन्दगी !

</poem>
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