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|रचनाकार=सुरंगमा यादव
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नफ़रत के हथियार दिखाकर
कहते गीत प्रेम के गाओ
हम बारूद बिछाते जाएँ
तुम गुलाब की फसल उगाओ
लपटों में हम घी डालेंगे
अग्नि- परीक्षा तुम दे जाओ
ठेकेदार हैं हम नदिया के
कुआँ खोद तुम प्यास बुझाओ
हम सोपानों पर चढ़ जाएँ
तुम धरती पर दृष्टि गड़ाओ
माला हम बिखराएँ तो क्या!
मोती तुम फिर चुन ले जाओ
सिंहासन पर हम बैठेंगे
तुम चाहो पाया बन जाओ
फूलों पर हम हक रखते हैं
तुम काँटों से दिल बहलाओ
अधिकारों का दर्प हमें है
तुम कर्त्तव्य निभाते जाओ
करो शिकायत कभी कोई न
अधरों पर मुस्कान सजाओ
मन चकराया,समझ ये आया
खुद ही सारे जाल हटाओ
अब मत शर्तों के कंधों पर
संबंधों का बोझ उठाओ।
</poem>