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नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=गजानन माधव मुक्तिबोध }} [[Category:लम्बी कविता]] {{KKPageNavigation ...
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{{KKRachna
|रचनाकार=गजानन माधव मुक्तिबोध
}}
[[Category:लम्बी कविता]]
{{KKPageNavigation
|पीछे=एक स्वप्न कथा / भाग 6 / गजानन माधव मुक्तिबोध
|आगे=
|सारणी=एक स्वप्न कथा / गजानन माधव मुक्तिबोध
}}
::'''7'''<br><br>
स्तब्ध हूँ<br>
विचित्र दृश्य<br>
फुसफुसे पहाड़ों-सी पुरुषों की आकृतियाँ<br>
भुसभुसे टीलों-सी नारी प्रकृतियाँ<br>
ऊँचा उठाये सिर गरबीली चाल से<br>
सरकती जाती हैं<br>
चेहरों के चौखटे<br>
अलग-अलग तरह के-- अजीब हैं<br>
मुश्किल है जानना;<br>
पर, कई<br>
निज के स्वयं के ही<br>
पहचानवालों का भान हो आता है।<br>
आसमान असीम, अछोरपन भूल,<br>
तंग गुम्बज, फिर,<br>
क्रमशः संक्षिप्त हो<br>
मात्र एक अँधेरी खोह बन जाता है।<br>
और, मैं मन ही मन, टिप्पणी करता हूँ कि<br>
हो न हो<br>
कई मील मोटी जल-परतों के<br>
नीचे ढँका हुआ शहर जो डूबा है<br>
उसके सौ कमरों में<br>
हलचलें गहरी हैं<br>
कि उनकी कुछ झाइयाँ<br>
ऊपर आ सिहरी हैं<br>
सिहरती उभरी हैं.....
::साफ़-साफ़ दीखतीं।<br><br>
अकस्मात् मझे ज्ञान होता है<br>
कि मैं ही नहीं वरन्<br>
अन्य अनेक जन<br>
दुखों के द्रोहपूर्ण<br>
शिखरों पर चढ़ करके<br>
देखते<br>
विराट् उन दृश्यों को<br>
कि ऐसा ही एक देव भयानक आकार का<br>
अनन्त चिन्ता से ग्रस्त हो<br>
विद्रोही समीक्षण-सर्वेक्षण करता है<br>
विराट् उन चित्रों का।<br><br>
जुलूस में अनेक मुख<br>
(नेता और विक्रेता, अफसर और कलाकार)<br>
अनगिन चरित्र<br>
::पर, चरितव्य कहीं नहीं<br>
अनगिनत श्रेष्ठों की रूप-आकृतियाँ<br>
रिक्त प्रकृतियाँ<br>
मात्र महत्ता की निराकार केवलता।<br>
उस कृष्ण सागर की ऊँची तरंगों में,<br>
उठता गिरता हुआ मेरा मन<br>
अपनी दृष्टि-रेखाएँ प्रक्षेपित करता है<br>
इतने में दीखता कि<br>
सागर की थाहों में पैर टिका देता है पर्वत-आकार का<br>
देव भयानक<br>
उठ खड़ा होता है।<br>
सागर का पानी सिर्फ उसके घुटनों तक है,<br>
पर्वत-सा मुख-मण्डल आसमान छूता है<br>
अनगिनत ग्रह-तारे चमक रहे, कन्धों पर।<br>
लटक रहा एक ओर<br>
चाँद<br>
कन्दील-सा।<br>
मद्धिम प्रकाश-रहस्य<br>
जिसमें, दूर, वहाँ, एक फैला-सा<br>
चट्टानी चेहरा स्याह<br>
नाज़ुक और सख़्त (पर, धुँधला वह)<br>
कहता वह-<br>
................<br>
कितनी ही गर्वमयी<br>
सभ्यता-संस्कृतियाँ<br>
डूब गयीं।<br>
काँपा है, थहरा है,<br>
काल-जल गहरा है,<br>
::शोषण की अतिमात्रा,<br>
::स्वार्थों की सुख-यात्रा,<br>
जब-जब सम्पन्न हुई<br>
आत्मा से अर्थ गया, मर गयी सभ्यता।<br>
भीतर की मोरियाँ अकस्मात् खुल गयीं।<br>
जल की सतह मलिन<br>
ऊँची होती गयी,<br>
अन्दर सूराख़ से<br>
अपने उस पाप से<br>
शहरों के टॉवर सब मीनारें डूब गयीं,<br>
काला समुन्दर ही लहराया, लहराया!<br><br>
भयानक थर-थर है!! ग्लानिकर सागर में<br>
मुझे ग़श आता है<br>
विलक्षण स्पर्शों की अपरिचित पीड़ा में<br>
परिप्रेक्ष्य गहरा हो,<br>
::तिमिर-दृश्य आता है<br>
ठनकती रहती हैं,<br>
आभ्यन्तर ग्रन्थियाँ, बहिर्समस्याएँ।<br><br>
इतने अकस्मात् मुझे दीख पड़ता है<br>
काले समुन्दर के बीच चट्टानों पर<br>
सूनी हवाओं को सूँघ रहा<br>
फूटा हुआ बुर्ज़ या<br>
रोशनी-मीनार<br>
बुझी हुई-<br>
पुर्तगीज़, ओलन्द्ज़, फिरंगी लुटेरों के<br>
हाथों सधी हुई।<br>
उस पर चढ़ अँधियारा<br>
जाने क्या गाता है,<br>
मुझको डराता है!!
ख़याल यह आता है कि<br>
हो न हो<br>
इस काले सागर का<br>
सुदूर-स्थित पश्चिम-किनारे से<br>
ज़रूर कुछ नाता है<br>
इसीलिए, हमारे पास सुख नहीं आता है।<br><br>
इतने मे अकस्मात् तैरता आता-सा<br>
समुद्री अँधेरे में<br>
जगमगाते अनगिनत तारों का उपनिवेश।<br>
विविध रूप दीपों को अनगिनत पाँतों का<br>
रहस्य-दृश्य!!
सागर में प्रकाश-द्वीप तैरता!!
जहाज़ हाँ जहाज़ सर्च-लाइट फेंक घनीभूत अँधेरे में दूर-दूर<br>
उछलती लहरों पर जाने क्या ढूँढता।<br>
सागर तरंगों पर भयानक लट्ठे-सा<br>
डूबता उतराता दिखाई देता हूँ कि<br>
चमकती चादर एक तेज़ फैल जाती है<br>
मेरे सब अंगों पर।<br>
एक हाथ आता है मेरे हाथ!!<br><br>
वह जहाज़<br>
क्षोभ विद्रोह-भरे संगठित विरोध का<br>
साहसी समाज है!!
भीतर व बाहर के पूरे दलिद्दर से<br>
मुक्ति की तलाश में<br>
आगामी कल नहीं, आगत वह आज है!!
{{KKRachna
|रचनाकार=गजानन माधव मुक्तिबोध
}}
[[Category:लम्बी कविता]]
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|पीछे=एक स्वप्न कथा / भाग 6 / गजानन माधव मुक्तिबोध
|आगे=
|सारणी=एक स्वप्न कथा / गजानन माधव मुक्तिबोध
}}
::'''7'''<br><br>
स्तब्ध हूँ<br>
विचित्र दृश्य<br>
फुसफुसे पहाड़ों-सी पुरुषों की आकृतियाँ<br>
भुसभुसे टीलों-सी नारी प्रकृतियाँ<br>
ऊँचा उठाये सिर गरबीली चाल से<br>
सरकती जाती हैं<br>
चेहरों के चौखटे<br>
अलग-अलग तरह के-- अजीब हैं<br>
मुश्किल है जानना;<br>
पर, कई<br>
निज के स्वयं के ही<br>
पहचानवालों का भान हो आता है।<br>
आसमान असीम, अछोरपन भूल,<br>
तंग गुम्बज, फिर,<br>
क्रमशः संक्षिप्त हो<br>
मात्र एक अँधेरी खोह बन जाता है।<br>
और, मैं मन ही मन, टिप्पणी करता हूँ कि<br>
हो न हो<br>
कई मील मोटी जल-परतों के<br>
नीचे ढँका हुआ शहर जो डूबा है<br>
उसके सौ कमरों में<br>
हलचलें गहरी हैं<br>
कि उनकी कुछ झाइयाँ<br>
ऊपर आ सिहरी हैं<br>
सिहरती उभरी हैं.....
::साफ़-साफ़ दीखतीं।<br><br>
अकस्मात् मझे ज्ञान होता है<br>
कि मैं ही नहीं वरन्<br>
अन्य अनेक जन<br>
दुखों के द्रोहपूर्ण<br>
शिखरों पर चढ़ करके<br>
देखते<br>
विराट् उन दृश्यों को<br>
कि ऐसा ही एक देव भयानक आकार का<br>
अनन्त चिन्ता से ग्रस्त हो<br>
विद्रोही समीक्षण-सर्वेक्षण करता है<br>
विराट् उन चित्रों का।<br><br>
जुलूस में अनेक मुख<br>
(नेता और विक्रेता, अफसर और कलाकार)<br>
अनगिन चरित्र<br>
::पर, चरितव्य कहीं नहीं<br>
अनगिनत श्रेष्ठों की रूप-आकृतियाँ<br>
रिक्त प्रकृतियाँ<br>
मात्र महत्ता की निराकार केवलता।<br>
उस कृष्ण सागर की ऊँची तरंगों में,<br>
उठता गिरता हुआ मेरा मन<br>
अपनी दृष्टि-रेखाएँ प्रक्षेपित करता है<br>
इतने में दीखता कि<br>
सागर की थाहों में पैर टिका देता है पर्वत-आकार का<br>
देव भयानक<br>
उठ खड़ा होता है।<br>
सागर का पानी सिर्फ उसके घुटनों तक है,<br>
पर्वत-सा मुख-मण्डल आसमान छूता है<br>
अनगिनत ग्रह-तारे चमक रहे, कन्धों पर।<br>
लटक रहा एक ओर<br>
चाँद<br>
कन्दील-सा।<br>
मद्धिम प्रकाश-रहस्य<br>
जिसमें, दूर, वहाँ, एक फैला-सा<br>
चट्टानी चेहरा स्याह<br>
नाज़ुक और सख़्त (पर, धुँधला वह)<br>
कहता वह-<br>
................<br>
कितनी ही गर्वमयी<br>
सभ्यता-संस्कृतियाँ<br>
डूब गयीं।<br>
काँपा है, थहरा है,<br>
काल-जल गहरा है,<br>
::शोषण की अतिमात्रा,<br>
::स्वार्थों की सुख-यात्रा,<br>
जब-जब सम्पन्न हुई<br>
आत्मा से अर्थ गया, मर गयी सभ्यता।<br>
भीतर की मोरियाँ अकस्मात् खुल गयीं।<br>
जल की सतह मलिन<br>
ऊँची होती गयी,<br>
अन्दर सूराख़ से<br>
अपने उस पाप से<br>
शहरों के टॉवर सब मीनारें डूब गयीं,<br>
काला समुन्दर ही लहराया, लहराया!<br><br>
भयानक थर-थर है!! ग्लानिकर सागर में<br>
मुझे ग़श आता है<br>
विलक्षण स्पर्शों की अपरिचित पीड़ा में<br>
परिप्रेक्ष्य गहरा हो,<br>
::तिमिर-दृश्य आता है<br>
ठनकती रहती हैं,<br>
आभ्यन्तर ग्रन्थियाँ, बहिर्समस्याएँ।<br><br>
इतने अकस्मात् मुझे दीख पड़ता है<br>
काले समुन्दर के बीच चट्टानों पर<br>
सूनी हवाओं को सूँघ रहा<br>
फूटा हुआ बुर्ज़ या<br>
रोशनी-मीनार<br>
बुझी हुई-<br>
पुर्तगीज़, ओलन्द्ज़, फिरंगी लुटेरों के<br>
हाथों सधी हुई।<br>
उस पर चढ़ अँधियारा<br>
जाने क्या गाता है,<br>
मुझको डराता है!!
ख़याल यह आता है कि<br>
हो न हो<br>
इस काले सागर का<br>
सुदूर-स्थित पश्चिम-किनारे से<br>
ज़रूर कुछ नाता है<br>
इसीलिए, हमारे पास सुख नहीं आता है।<br><br>
इतने मे अकस्मात् तैरता आता-सा<br>
समुद्री अँधेरे में<br>
जगमगाते अनगिनत तारों का उपनिवेश।<br>
विविध रूप दीपों को अनगिनत पाँतों का<br>
रहस्य-दृश्य!!
सागर में प्रकाश-द्वीप तैरता!!
जहाज़ हाँ जहाज़ सर्च-लाइट फेंक घनीभूत अँधेरे में दूर-दूर<br>
उछलती लहरों पर जाने क्या ढूँढता।<br>
सागर तरंगों पर भयानक लट्ठे-सा<br>
डूबता उतराता दिखाई देता हूँ कि<br>
चमकती चादर एक तेज़ फैल जाती है<br>
मेरे सब अंगों पर।<br>
एक हाथ आता है मेरे हाथ!!<br><br>
वह जहाज़<br>
क्षोभ विद्रोह-भरे संगठित विरोध का<br>
साहसी समाज है!!
भीतर व बाहर के पूरे दलिद्दर से<br>
मुक्ति की तलाश में<br>
आगामी कल नहीं, आगत वह आज है!!