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अनचाहे हो,
ना आओ सपनों मेरी आँखों में।
नजरें
मेरे वतन के क्षितिजों पर छूट गई हैं।
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अनचाहे हो
ना आओ सपनों मेरी आँखों में।
नजरें
मेरे वतन के क्षितिजों पे छुट गए हैं।
इस जगह कहीं न दिखनेवाला मैं
एक खोया हुआ ठिकाना भर हूँ।
टूटा हुआ हूँ,खुद का पलाबढा पलाबढ़ा पेड़ को वहीँ कहीँ वहीं कहीं छोड़कर।पत्तोँ पे रख पत्तों पर रखकर अपना वजूद कोयूँ ही कहीँ कहीं गिर गया हूँ,एक बूढ़े पत्ते की तरह,ज़र्द सन्तुष्टि संतोष लेकरया फिर सब्ज जिन्दगी गुजरकर।हरी ज़िंदगी गुज़ारकर।
नि:स्वाद को उत्कर्ष तक जीता हूँ हर लम्हा,
अतीत ऐसे काटता है कि हर कदम मरते हुए चलता हूँ।
कितने ही बरस बीत जाए जाएँ लेकिनसरहद पार की यह मिट्टी नहीं मुझे अपनाती मुझे।नहीं।कडवी कड़वी लगती है मुझे इस आसमाँ आसमान की नीलिमा भी।भी,और बढती बढ़ती ही चली है मेरी प्यास
इस बेगाने शिविर के पानी से।
न सता मुझे ए!मुजरिम तसल्ली!कि मुझे अपने वतन के ही किसी हवालात में
कैद होना था।
पनाह के इस कारागार में
बेवजुद मुस्कुराया हुआ मेरा परिचय
मेरी लाश तक आ पहुँचेगा जरुर।ज़रूर।
वैसे तो अब भी मैं
जिया ही कहाँ हूँ?
०००
 
 
...............................................
'''[[देशबिना / ज्योति जङ्गल|यहाँ क्लिक गरेर यस कविताको मूल नेपाली पढ्न सकिनेछ ।]]
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