Changes

{{KKCatKavita}}
<poem>
काठमान्डू काठमांडूअपने अनेक धूप धूपों
और
अनेक मूहँ मुँह से बोलता है।
पथ्थर के पत्थर की वाणी पे पर तरासा हुवा हुआ मन सेकाठमान्डू काठमांडू अपना प्राचीन मूहँ मुँह खोल सैलानियोँ सैलानियों से बोलता है ।है।
लेकिन
हम लोगोँ लोगों से यहयन्त्र यंत्र के मूहँ मुँह से बात करता है।
मटमैली धूप लेकर हम
धूवोँ धुओं के धुन्ध धुंध के निचेनीचेलङ्गुर लंगूर सा चलते रहते हैँ ।हैं।
कचरोँ कचरे के ढेर में से लुढक लुढ़क कर
घायल बनी हुई धूप
शहर के अन्दर अंदर बचे हुए कुछेक जगहोँ पेजगहों परबेमन से चलती है ।है।
बच्चे हात पकड हाथ पकड़ करइस को ढलोँ मे इसे ढोलों में से बाहर निकालते हैँ ।हैं।प्राचीन इमारतोँ पे इमारतों परऔरतेँ महिलाएँइस की थकित इसके थके हुए पीठ और नितम्बोँ पेनितंबों परमालिस मालिश कर देती हैँ ।हैं।
सरोपा तेल से लथपथ धूप
पवित्र बागमती की ओर दौडती दौड़ती है, औरसहसा छलाङ छलांग लगाती है ।है।
और
भिगा हुवा भीगता हुआ बदन ले लेकरकल हम सभी से बोले जानेवाली जाने वाली भाषा की खोज मेँमेंघबराते हुए भीड भीड़ में ढुक ढल करकहीँ कहीं खो जाता है ।है। 
</poem>
Mover, Reupload, Uploader
10,426
edits