<poem>
भर दिन
खुश्क बाँस बांस की तरहखुद का के खोखले वजुद पेवजूद पर
उँघकर,
पछता करपछताकर
भर दिन
बीमार चकोर की तरह
खुद के सीने पे पर खुद ही चोंच मारमार मार-मार कर,जख्मों को उधेडकरउधेड़कर
भर दिन
देवदार के पेड पेड़ की तरह दर्द से निःशब्द सुबक -सुबक कर रो कररोकर
भर दिन
कुकुरमुत्ते की तरह
धरती और आकाश की विशालता से दूर
एक छोटी-सी जगह पे पर अपना पैर धँसाकरएक छोटी -सी छतरी से खुद को ढक कर।ढककर।
शाम को
जब नेपाल सिकुडकर सिकुड़कर काठमांडूकाठमांडु सिकुडकर काठमांडू सिकुड़कर नयाँ सडकऔर नयाँ सडक सिकुडकर - अनगिनत इन्सानों सिकुड़कर—अनगिनत इंसानों के पैरों से कुचलाकरकुचलकर,टुकडों पे टुकड़ों में बँटकर
अखबार, चाय और पान की दुकाने बनता है,
किस्म-किस्म के परिधानों में
आती जाती हैं किस्म -किस्म की अफवाहें
अंडा देती हुई मुर्गी की तरह चिल्लाकर
चलते हैं अखबार
और जगह -जगह पे पर फुटपाथ पे पर चढ़ जाता है अँधेरागाड़ीयों गाड़ियों की रोशनी से डरकर।
और अनगिनत मधुमख्खियों का भुनभुन मधुमक्खियों की भनभनाहट और डंक से हडबडाकर हड़बड़ाकरमै मैं उठता हूँजैसे कयामत के दिन प्रेतात्मा उठते प्रेतात्माएँ उठती हैंऔर न पाकर भूल जाने की दरिया शराब के प्याले पे पर कूद पड़ता हूँ और भूल जाता हूँ अपनी अतीत की सारी कहानियों कोकहानियाँ
पूर्वजन्म और मौत को।
इसी तरह हर रोजरोज़चाय की कितली केतली से एक सूरज उग आता हैहर रोज रोज़ शराब की खाली प्याली पे पर एक सूरज डूब जाता है।घूम ही रही है पृथ्वी - पहले पृथ्वी—पहले की ही तरह
सिर्फ मैं अनभिज्ञ हूँ
अगल अगले-बगल के बदलाव से,
दृश्यों से
खुशियों से,
प्रदर्शनी पे पर राखी हुई घूमनेवाली घूमने वाली कुर्सी पे परबेमन से बैठा हुआ बैठे हुए एक अंधे की तरह।
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