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कसमें / धिरज राई / सुमन पोखरेल

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<poem>
कसमें तो कितनी ही खाई अब तक !
— माँ के नाम पर
— पिता के नाम पर
— देवी-देवताओं के नाम पर
— विद्या के दांव पर
— मर जाने की धमकी पर।

ना मानी हुई बात कितनी आसानी से सच हो जाती
एक ही कसम से ।

उस वक्त तो,
न्यायाधीश ही बन खड़ी थीं कसमें।

छोटी बेटी को तिलक लगाकर काकाजी ने
शराब छोड़ने की जो कसम खाई थी,
उससे तोड़ते हुए भी देखा,
माँ का हाथ अपने सिर पर रखकर
दीदी को झूठ बोलते हुए भी देखा,
कुल देवता मानी जाने वाली चट्टान को छूने पर
भाई की गलती ने उन्मुक्ति पाया हुआ भी देखा।

बोलियों के साथ जुड़ते गए कसमें
और साथ-साथ टूटते और झूठे होते हुए भी गए
कभी कोई भी कसम किसी को नहीं सता सकी
धत्, उस समय का डर!
— अब जाना कि कसम जितनी मिथ्या तो
और कुछ हो ही नहीं सकता।

लेकिन, यह भी मालूम हुआ कि
चाहने भर से टूटे नहीं जाते कसमें!
अब जाकर समझ पा रहा हूँ,
एक ही कसम भी किसी को कितनी बुरी तरह से सता सकती है!
जब मैंने तुम्हें भूल जाने की कसम खाई।

०००

</poem>
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