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बदला हुआ शहर / प्राणेश कुमार

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<poem>
इसकी गलियों में
मेरी पदचाप की अनुगूंज सुनाई देती थी कभी
कभी इसकी झील
दोस्तों के ठहाकों से तरंगित होती थी
इसकी सड़कें हमारे चलने से मुस्कुराती थीं।

रात के अँधेरे में
बारिश से भीगते
लैम्पपोस्ट की मद्धम रोशनी में
पानी की बूँदों से तृप्त होती थी दृष्टि
दोस्तों के कमरों में परवान चढ़ती थी बहसें
ठहाके
मिलना
फिर - फिर मिलना
जाने - पहचाने - मुस्कुराते
आत्मीयता से भरे चेहरे।
दुश्मन भी कहाँ था दुश्मन
वह मित्र ही तो था
मित्रता से भरी थी उसकी दुश्मनी !

पहली बारिश की सोंधी ख़ुशबू की तरह था
मेरा शहर
बीज से निकलते मासूम अंकुर की तरह था
मेरा शहर
आँधी और मूसलाधार बारिश में
बच्चों की चिंता में लौटते हुए
पक्षी की तरह था मेरा शहर
तेज धूप में कॉलेज से पैदल लौटती
पसीने पोंछती लड़की की तरह था मेरा शहर !

मेरे आत्मीय
मेरे मित्र
आज इस अजनबी बनते शहर में
मैं तुम्हें पुकारता हूँ
पुकार हाहाकार बन गयी है
कहाँ हो मेरे दोस्तों ?

शहर की अथाह भीड़ में
मैं देख नहीं पाता तुम्हे
गलियाँ गुम हो गयीं हैं
बदल गए हैं मुहल्ले
अनजाने चेहरों में
हर आदमी अपने में मशगूल
दीवारों में क़ैद होने को आतुर
नई आबादी
नए लोग
अनजान चेहरे
कहाँ छूट गया हमारा शहर
शहर - स्मृतियों में बसा शहर
शहर - जो स्पंदन है
शहर - मेरे मित्रो का शहर
मेरा और मेरे निश्छल दुश्मनों का शहर
शहर - मेरे संघर्षों का शहर
प्रथम प्रेम के स्पंदन का शहर
गरीबी से लड़ते युवक का शहर
आत्मीयता का शहर
पुलक में बसा शहर
शहर - जो मेरी स्मृतियों में हमेशा जिन्दा है।
</poem>
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