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माँ की याद / प्राणेश कुमार

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<poem>
जब मैं
सबके साथ होकर भी
अपने आप को तन्हा महसूसता हूँ
और मेरे साथ ज़िंदा
हर लम्हा उदास हो जाता है
तब तुम्हारी याद आती है ।

शाम को गायें जब
गाँव के धूल भरे रास्ते से
वापस लौटती हैं
सूरज जब
पश्चिमी क्षितिज पर
डूब रहा होता है
घरों से जब
पीली रोशनी
झाँकने लगती है
चूल्हे का धुँआ जब
छप्परों से निकल रहा होता है
तब तुम्हारी याद आती है ।

मैं जानता हूँ
शाम जब चढ़ती है
तब तुम दरवाज़े पर खड़ी होकर
दूर -दूर तक रास्ते को निहारती हो !
जब भी मैं किसी को
दरवाजे पर प्रतीक्षारत देखता हूँ
जब भी घर के लिए
लौटते हैं लोग शाम को
तब तुम्हारी याद आती है ।

मैं जानता हूँ
तुम मेरा इंतज़ार कर रही होगी
पूजा घर में भी
मेरी सुधि आ रही होगी
भोजन की थाली
अच्छी नहीं लगती होगी
आँखें रास्ते में टिकी होंगी
तुम मेरी पदचाप
पहचानने की
कोशिश कर रही होगी ।

तुमसे दूर इधर मैं
रोजी की खोज में
भटकता -भटकता
बहुत थक जाता हूँ
मेरे जैसे करोड़ों युवक भी
थके- हारे भटकते हैं
इस भटकन से मेरा अंतर
जब हारने लगता है
मैं जब डरने लगता हूँ
तब तुम्हारी याद आती है ।
</poem>
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